गुरुवार, 13 नवंबर 2014

अस्त होता सूर्य




अस्त होता सूर्य

अस्त होता सूर्य न जाने हमारे मन में कितने भ्रम पैदा करता है । जैसे हमारा अंधविश्वास  है कि  यह समय
शुभ नहीं होता, दोनों समय यानि सुबह और शाम का मिलन होता है  । सूर्यास्त से शाम का आगमन होता  है। हमारे जीवन की बृद्धावस्था की तुलना भी हम संध्या से करते हैं ।  क्या हम बृद्ध हो गए हैं तो अपना होंसला खो दें, स्वयं को कमजोर समझें ? क्या अपने -आप को नालायक समझें  ?अस्त होता सूर्य हमें  यह नहीं सिखाता । वह तो डूबने के बाद भी आसमां  में लाली बिखेरता है । नयी किरणों को ढूढ़ने निकल पड़ता है । हमें वह यह सन्देश नहीं देता कि  जिंदगी समाप्त हो रही है ,बल्कि हमसे कहता है निराश न हो ,होंसले न गँवाओ , नयी आशाओं के साथ अपना जीवन जीओ । देखो यह डूबता सूरज नई किरणें  खोजने गया है ,एक नई  सुबह के साथ लौटेगा । यह नयी सुबह फिर से सुरमयी धीमा -धीमा प्रकाश लेकर आ रही है,फिर से वही  चहल -पहल ,वही आशाएं ,वही भागदौड़ ,वही धुमा -मस्ती । क्या हममें अनुभव की कमी है,क्या जोश की कमी है ?
                                       नहीं , हम परिवर्तनशील नहीं है । परिवर्तन चाहिए हमारी सोच में । हम युवाओं के साथ युवा बनें ,बच्चों के साथ बच्चे । अपने विचारों को औरों पर थोपने की कोशिश न करें । उनसे इतनी आशाएं  न रखें की छोटी -छोटी बातों पर आहत होना पड़े । आज की पीढ़ी के साथ मिलकर अपने सपने साकार करें । इतनी जगह इस पीढ़ी को दें ताकि इज्जत उधार में न लेनी पड़े। अड़ियल व्यवहार  क्यों रखें ।
                                         आज शाम अपने बगीचे की कुर्सी पर बैठे -बैठे यूँ ही अस्त होते सूर्य को निहार रही थी कि इस सोच ने मुझे झकझोर दिया । आनेवाली वह सुबह नाती -नातिन ,पोते -पोती की अठखेलियों में क्यूँ न गुजार  दें । फिर से बचपन का एहसास जो होगा ,उसे क्यों बर्बाद होने दें । उन मित्रों के साथ हंसी -ख़ुशी क्यों न बाँट लें । अपनी सारी  निराशाओं को एक नया रूप क्यों न दें । घर के अंदर बैठे -बैठे अपने तेज -तरार तानों
से घर के सदस्यों को आहत तो न करें । सालों - साल का कमाया अनुभव क्या ऐसे -ही बेकार होने दें ? नहीं ! अस्त होते सूरज की तरह फिर एक नई  सुबह की तलाश  करें । 
रात  बन कर यूँ न आना तुम ,कि दिन बीत  चूका है। 
  रात बनकर  यूँ आना तुम,कि  कल फिर नई सुबह होगी । 
  नींद से न जागना तुम ,कि ख्वाब टूट चूका है । 
  नींद से यूँ जागना तुम ,कि स्वप्न  साकार करना है । 
  राह चलते -चलते ,न रुक जाना तुम ,कि मंजिल पा चुके हो। 
  राह  चलते -चलते , चलते ही जाना ,कि मंजिल पे मंजिलें बनानी हैं ।


    
         

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

That was a great read Geetaji :-)
Cheers, Archana - www.drishti.co

mere vichar ek khuli kitab ने कहा…

Thanks Archana, your comments are always encouraging