रविवार, 16 नवंबर 2014

श्रमदान

'श्रमदान' शब्द कहने और सुनने दोनों में कड़वा लगता है । हकीकत यह है कि बिना श्रम के हम एक निट्ठले की जिंदगी जीते हैं । सूट- बूट पहनकर अपने को हम बाबू क्यों ना  समझे ,अगर दिमाग को तंदरुस्त रखना है तो मेहनत तो करनी पड़ेगी । पत्थर तोड़ने से ही मेहनत होती है ऐसी बात नहीं । रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे सैकड़ो काम आते है जो हम स्वयं कर सकते हैं और उन्हें न करने पर हम दूसरों पर बोझ बनते हैं ।कम से कम अपना काम तो हम स्वयं करें । ऑफिस में फाइल निकालना , अपने जुते  पॉलिस करना ,झूठे बर्तन रखना, आदि ।आस -पास का वातावरण स्वच्छ रखे। अगर इस अनुशाशन को मान कर चलें कि  न इधर -उधर  कचरा फेकेंगे और न सफाई के लिए दूसरों पर निर्भर रहेंगे तो काफी हद तक वातावरण को स्वच्छ रखने में कामयाब हो सकते हैं । बच्चों को छोटी उम्र से साफ -सफाई का महत्व बताए । सिर्फ उपदेश नहीं ,उदाहरण बने ।                                                           
                                             हमारा शरीर एक मशीन की तरह है ,इसका सही उपयोग नहीं करेंगे तो अनान्य बिमारियों के शिकार हो जाएंगे । आज फिटनेस के लिए ज़िम जा कर पसीना बहाना मंजूर है ,मगर अपने ही घर में झाड़ू लगाना मंजूर नहीं । आस -पास कूड़ों के ढ़ेर  देख अपने ही देश को नरक कहना अच्छा समझते हैं । 'ये तो इंडिया है " कह कर वहाँ से सरक जाते हैं।यह समझने की कोशिश नहीं करते कि इण्डिया आखिर है क्या ?हम नहीं तो इंडिया नहीं , देशवासियों से ही देश बनता है । इसप्रकार इन गंदगी के ढेरों के जिम्मेवार भी हम हैं । सरकारी संस्थाएं तो जिम्मेवार है ही मगर हम थोड़ा -थोड़ा हाथ तो बंटा सकते है ना- कूड़ा हर कंही न फेंक कर । 
                                                 फूल,फल और सब्जियाँ उगाएं। हरदिन एकाध घण्टा शारीरिक कार्य के लिए भी दें । मानसिक काम तो हम खूब करते हैं ,क्योंकि हमारा ओहदा जो बड़ा होता है । तनावग्रस्त होने पर फिर शारीरिक परिश्रम की और दौड़ते हैं -व्यायाम  । वर्तमान में हम शारीरिक काम से घृणा करने लगे हैं ,इसे छोटा समझते हैं । भविष्य में खुशहाल  जीवन जीना है  तो थोड़ा -बहुत  श्रम जरूर करें । 

इसी संदर्भ में स्वर्गीय ईश्वरचंद्र विद्यासागर की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत याद आती  है -"अपना काम करते आप न लजाओ ।  "  
                                         

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