हुआ सबेरा ,बजी मन्दिर की घंटियाँ
मेरे घर आई इक आशा की किरण
बड़ी खुशियों के साथ किया ,मैंने
उसका स्वागत
धीरे -धीरे पहला साल गुजरा
बड़े यत्न और हिफाजत से ,
दूसरा , तीसरा ,चौथा और पांचवा
साल गुजरा
घर की दहलीज के बाहर लगी निकलने
मेरी यह आशा की किरण
सपनों के तानो -बानों में
लगी अपने पंख फ़ैलाने
उड़ी चली जा रही थी
जिंदगी के अरमानो को पाने
ना कोई बंधन ,ना कोई अड़चन
बस मुक्त और स्वछन्द सांसे
ले रही थी वह ,
ख्वाबों की मंजिल पाने को
हाय ! अचानक यह क्या हुआ ?
सांसे रुकी ,सपने टूटे ,
बेटी होने का सच सामने आया
हमारे ही समाज के किसी दरिंदे ने
फिर देश को शर्मसार किया
इज्जत उसकी लूटी गयी
छलनी -छलनी सारे जजबात हुए
आज पूछती हूँ मैं सभी से
क्या बेटी होने की सजा यही है ?
क्या बेटी के जन्मने पर
चिन्ता का विषय यही है ?
क्या बेटी की चिता ,घिनौनी हरकतों
से जलेगी ?
नहीं नहीं नहीं नहीं
नहीं डरना हमें इन दरिंदों से
फैलाओ अपने पंख परिंदो - से
दोहराओ फिर कहानी लक्ष्मीबाई की
ना झुकना ,ना डरना ,ना हारना
डटे रहो मर्दानगी - से ,
लड़ो अपनी लड़ाई
नाम -से ही बस हम निर्भया नहीं
मिटा दो भय का नामो निशान
आँख उठा कर देख ना सके कोई शातिर
दुर्गा की शक्ति दर्शा दो
अपनी रक्षा की जिम्मेवारी
स्वयं अपने कन्धों पर ले लो
कड़को बन बिजली आसमान में
दहका दो अपने अस्तित्व -से
संपूर्ण धरा को ।