शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

आशा की किरण


 






 

And to end this brief post, a few <b>quotes</b> by inspirational <b>women</b>...

                      


हुआ सबेरा ,बजी मन्दिर की घंटियाँ
मेरे घर आई इक आशा की किरण                                                  
बड़ी खुशियों के साथ किया ,मैंने
उसका स्वागत
धीरे -धीरे पहला साल गुजरा
बड़े यत्न और हिफाजत से ,
दूसरा , तीसरा ,चौथा और पांचवा
साल गुजरा
घर की दहलीज के बाहर लगी निकलने
मेरी यह आशा की किरण
सपनों के तानो -बानों में
लगी अपने पंख फ़ैलाने
उड़ी चली जा रही थी
जिंदगी के अरमानो को पाने
ना  कोई बंधन ,ना  कोई अड़चन
बस मुक्त और स्वछन्द सांसे
ले रही थी वह ,
ख्वाबों की मंजिल पाने को
हाय ! अचानक यह क्या हुआ ?
सांसे रुकी ,सपने टूटे ,
बेटी होने का सच सामने आया
हमारे ही समाज के किसी दरिंदे ने
फिर देश को शर्मसार किया
इज्जत उसकी लूटी गयी
छलनी -छलनी सारे  जजबात  हुए
आज पूछती हूँ मैं सभी से
क्या  बेटी होने की सजा यही है ?
क्या बेटी के जन्मने पर
चिन्ता का विषय यही है ?
क्या बेटी की चिता ,घिनौनी हरकतों
से जलेगी  ?
नहीं    नहीं     नहीं    नहीं
नहीं डरना हमें इन दरिंदों से
फैलाओ अपने पंख परिंदो - से
दोहराओ फिर कहानी लक्ष्मीबाई की
ना झुकना ,ना  डरना ,ना हारना
डटे  रहो मर्दानगी - से ,
लड़ो अपनी लड़ाई
नाम -से ही बस हम निर्भया नहीं
मिटा दो भय  का नामो  निशान
आँख उठा कर देख ना सके कोई शातिर
दुर्गा की शक्ति दर्शा दो
अपनी रक्षा की जिम्मेवारी
स्वयं अपने कन्धों पर ले लो
कड़को बन बिजली आसमान में
दहका दो अपने अस्तित्व -से
संपूर्ण धरा को ।




बुधवार, 3 दिसंबर 2014

KUSEONG- A LAND OF WHITE ORCHIDS



KURSEONG

कर्सियांग - हिमालय की गोदी में बसा एक खुबसुरत छोटा -सा शहर है । चारों तरफ लम्बे - लम्बे पाइन के वृक्षों से ढका हुआ -हरियाली का  है । गिरगिट की तरह यहाँ का मौसम भी अपना रंग बदलता रहता है । अभी कुहासा है ,थोड़ी देर बाद बिल्कुल शीशे -सा साफ ,फिर धूप तो फिर धुंधलका ,पता ही नहीं चलता मौसम के मूड का । देखते ही देखते बादल  जमीं पर उतर आते हैं । कंचनजंघा अपनी सुनहरी छटा प्रातःकाल व  संध्या समय बड़ी खुबसुरती से बिखेरती है । यह शहर 'LAND OF WHITE ORCHID' के नाम से भी जाना जाता है ।
                                            चाय के बगीचों का धनि यह शहर संसार के हर कोने तक अपनी चाय की पत्तियों की  खुशबू बिखेरता है । छुक -छुक करती ,धुआँ छोड़ती ,सकड़ी -सकड़ी रेल की पटरियों पर चलती टॉय -ट्रेन ,अपने -आप में एक राष्ट्रीय धरोहर है । यंहा के संतरों का स्वाद लाजवाब है ।
                                             रही बात यंहा के वासियों की - वे भी अनूठे हैं । मिलनसार ,साफ -स्वच्छ और सुन्दर हैं । इनकी अपनी वेश -भूषा -दवरासुलार ,नेपाली टोपी ,उसपर लगा खुखरी का बेज  -पुरुषों पर खूब फबता है ।महिलाएं अपनी परम्परागत वेश -भूषा  चौबन्दी- चौला और फारिया में बहुत खिलती हैं । युवाओं का जिक्र करे तो इन्हें 'Anglo-indian" कहना कोई गलत नहीं होगा । हर नयी फैशन के यह लोग दीवाने होते हैं । अपने लोकगीतों ,संस्कृति और सभ्यता से बड़ा लगाव रखते हैं ।
                                              इन गोरखाओं का हमारे देश की स्वतंत्रता में भी बड़ा योगदान रहा है । यहाँ  की भाषा गोर्खाली (नेपाली ) है ।


शनिवार, 29 नवंबर 2014

ये तो इंडिया है

ये  तो इंडिया है 

घर को मेरे मैं चार बार 
रोज सफा करवाता 
तनिक -सी गंदगी गर रह जाए
मुझे एलर्जी हो जाती 
घर से बाहर जब निकलता
गाड़ी की खिड़की से बाहर 
छिलका केले का हो या हो च्विंगम 
सड़क पर फेंकने में नहीं कोई गम 
किसके कपड़ों में चिपके 
फिसलकर किसकी हड्डी टूटे 
नहीं विषय मेरी चिंता का 
क्यूंकि -ये इंडिया है । 
  
मंदिर में प्रसाद सवा सेर ,
पत्थर की मूर्ति पर करता अर्पित
भूखे पेट बैठी छोटी -सी बाला,
उसी मंदिर के बाहर -'चल हट'
कह उसका करता तिरस्कार
मेरे बच्चे मेरे अपने हैं
स्वीट हार्ट और दिल के टुकड़े हैं
अनाथ कोई गर आए मेरे द्वारे
कहूँ अप- शब्द और धक्का मारूं
बेटा होने पर भव्य पार्टी
बेटी होने पर हुई बड़ी  चिता
क्यूंकि -ये तो इंडिया है ।

व्यापर अपना बढ़ाने को

नेताजी को दी रिश्वत
पेड़ लगाने की दी हिदायत
पर कागज की नावें बना बहा दी
आस -पास देख ढेर कूड़ों का ,
आँख -नाक सिकोड़ 
वहाँ सेपतली- गली निकल पड़ता
मिसेज मेरी ,भर बाल्टी कचरा
वहीँ पर डाल ,पहाड़ बना देती
मक्खी -मच्छर बहुत हो गए
'गुड -नाईट'की फरमाइस थमा देती
क्यूंकि ये तो इंडिया है ।

भाई मेरे ये तो इंडिया है ,
कहते वक्त भूल गया था
मैं भी तो इंडियन हूँ
भूल गया था कि
भारत बना -भारतवासी से
भूल गया था कि
देश परिवर्तन से पहले
स्वयं में परिवर्तन जरुरी है
जिस दिन समझ लूंगा कि
मैं सच्चा भारतवासी हूँ ,
गर्व से कहूँगा -"ये तो इंडिया है " ।
 
 

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

खोज रहा मेरा बचपन

खोज रहा मेरा बचपन

सिर पर उठाये ईंटों का बोझ 
मैं खोज रहा ,मेरा बचपन 
पिता मेरे नशे में धुत,
कर रहे व्यतीत अपना जीवन । 
माँ फटी -सी साड़ी में लिपटी ,
खाँस -खाँस ,फूंक रही ईंधन । 
खाली  है चूल्हे के बगल में,
आटे -दाल व  चावल का बर्तन । 
सिर पर उठाये ईंटों का बोझ 
मैं खोज रहा ,मेरा बचपन । 
स्कूल के दरवाजे से लौट आया 
खेल के मैदान भूल आया 
त्याग आया खिलौनों की दुनिया 
छोड़ आया गाँव की गलियाँ 
दोस्तों से अब हुई दूरियाँ 
शहरी मिट्टी पर ,ऊँची इमारतें बनाने 
सिर पर उठाये ईंटों का बोझ 
मैं खोज रहा ,मेरा बचपन । 
गन्नों के लहलहाते खेतों को छोड़ 
गाय  के ताजे दूध से मुंह मोड़ 
खेतों की सकड़ी पगडण्डी से 
शहरों  की चौड़ी सड़कों  पर
गांव के जीर्ण खटालों से 
भीड़ भरी शहरी चालों में 
सिर पर उठाये ईंटों का बोझ 
मैं खोज रहा ,मेरा बचपन । 

कल देखता था सपने ,
बचपन की अठखेलियों के 
आज कल्पित है सपने ,
भविष्य की कामयाबी के 
कल साँस लेता था खुली हवा में 
आज पसीना बहा रहा हूँ ,बंद मकानों में 
सिर पर उठाये ईंटों का बोझ 
मैं खोज रहा ,मेरा बचपन । 
picture from google.com  

बुधवार, 19 नवंबर 2014

जीवन का कालचक्र



Life in your hands - plant whit garden background

जीवन का  कालचक्र 

छः महीने की थी 
जब तेरे गर्भ में मैं, माँ  
कान लगा 
सुनते थे मेरी साँसे 
जब मैं तुझे लात मारती  
हाथों से कर स्पर्श ,कहते 
कैसा सुन्दर है यह एहसास ।  
छः महीने की हुई जब, 
जन्म के बाद 
काली मखमल की फ्रॉक 
पहनाकर,तस्वीर खींचते, 
गाल थपथपाते ,
अंगुली थमाते बार -बार । 
छठे- साल में पकड़ अंगुली
स्कूल तक छोड़ आते  
छुट्टी का रहता इंतजार, 
देखने को मुस्कराहट एकबार ।  
सोलह साल लगते -लगते 
चिंता करते अपार 
कर दें  इसको खड़ा 
अपने पैरों पर 
ऐसे थे तुम्हारे विचार । 
पढ़ा -लिखा काबिल बना दूँ 
न करना पड़े निर्भर किसी पर  
ब्याह रचाया बिटिया का 
खुशियां बांटी ,
नाना-नानी बनने की ।
आँख झपकते बीते पल 
फिर से दोहराई गई,  
वही कहानी
जो  तुम से शुरू हुई थी,  
अब मैं हो रही -
साठ  साल की 
बन गयी दादी -नानी  
चलता रहेगा यूँ- ही 
जीवन का ये कालचक्र 
जब -तक धरती पर हैं, 
रिश्तों की ममतामयी कतार।    
  





रविवार, 16 नवंबर 2014

श्रमदान

'श्रमदान' शब्द कहने और सुनने दोनों में कड़वा लगता है । हकीकत यह है कि बिना श्रम के हम एक निट्ठले की जिंदगी जीते हैं । सूट- बूट पहनकर अपने को हम बाबू क्यों ना  समझे ,अगर दिमाग को तंदरुस्त रखना है तो मेहनत तो करनी पड़ेगी । पत्थर तोड़ने से ही मेहनत होती है ऐसी बात नहीं । रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे सैकड़ो काम आते है जो हम स्वयं कर सकते हैं और उन्हें न करने पर हम दूसरों पर बोझ बनते हैं ।कम से कम अपना काम तो हम स्वयं करें । ऑफिस में फाइल निकालना , अपने जुते  पॉलिस करना ,झूठे बर्तन रखना, आदि ।आस -पास का वातावरण स्वच्छ रखे। अगर इस अनुशाशन को मान कर चलें कि  न इधर -उधर  कचरा फेकेंगे और न सफाई के लिए दूसरों पर निर्भर रहेंगे तो काफी हद तक वातावरण को स्वच्छ रखने में कामयाब हो सकते हैं । बच्चों को छोटी उम्र से साफ -सफाई का महत्व बताए । सिर्फ उपदेश नहीं ,उदाहरण बने ।                                                           
                                             हमारा शरीर एक मशीन की तरह है ,इसका सही उपयोग नहीं करेंगे तो अनान्य बिमारियों के शिकार हो जाएंगे । आज फिटनेस के लिए ज़िम जा कर पसीना बहाना मंजूर है ,मगर अपने ही घर में झाड़ू लगाना मंजूर नहीं । आस -पास कूड़ों के ढ़ेर  देख अपने ही देश को नरक कहना अच्छा समझते हैं । 'ये तो इंडिया है " कह कर वहाँ से सरक जाते हैं।यह समझने की कोशिश नहीं करते कि इण्डिया आखिर है क्या ?हम नहीं तो इंडिया नहीं , देशवासियों से ही देश बनता है । इसप्रकार इन गंदगी के ढेरों के जिम्मेवार भी हम हैं । सरकारी संस्थाएं तो जिम्मेवार है ही मगर हम थोड़ा -थोड़ा हाथ तो बंटा सकते है ना- कूड़ा हर कंही न फेंक कर । 
                                                 फूल,फल और सब्जियाँ उगाएं। हरदिन एकाध घण्टा शारीरिक कार्य के लिए भी दें । मानसिक काम तो हम खूब करते हैं ,क्योंकि हमारा ओहदा जो बड़ा होता है । तनावग्रस्त होने पर फिर शारीरिक परिश्रम की और दौड़ते हैं -व्यायाम  । वर्तमान में हम शारीरिक काम से घृणा करने लगे हैं ,इसे छोटा समझते हैं । भविष्य में खुशहाल  जीवन जीना है  तो थोड़ा -बहुत  श्रम जरूर करें । 

इसी संदर्भ में स्वर्गीय ईश्वरचंद्र विद्यासागर की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत याद आती  है -"अपना काम करते आप न लजाओ ।  "  
                                         

बेटी की विदाई

 

आज है शादी बेटी की ,
माता -पिता का मन हर्षाए'
बेटी के विवाह पर ढेरों आशीर्वाद बरसाए । 
मम्मी -पापा की आँखों की ज्योति,
नन्हें -नन्हें कदम चली, 
बांहों के झूले झूल हुई बड़ी ।
बचपन की यह चुलबुली गुड़िया 
चटपटी बातों से लेती थी सबको रिझा 
घर की यह प्यारी व लाडली ,
थी दिलों पर सवार । 
भाइयों से उलझती ,
छोटी-छोटी नोक-झोक पर। 
आंसू बहा-बहा ,दिल जो जीतती ,
हम सबकी यह छोटी डॉल । 
इसकी बातें ,इसके ठहाके ,
कर देते थे सबको गोल । 
सखियों की सबसे प्यारी सखी,
चाट खिलाती ,पिक्चर दिखाती । 
मनमानी यह नखरे दिखाती ,
बेटी होने का लुफ्त उठाती । 
आज यही हमारी बिटिया,
हो गयी अचानक सयानी । 
डोली में बैठ ,चली पति के आँगन ,
बनेगी अब सास -ससुर की शोभा । 
विदाई के इस शुभदिन ,
ईश्वर देना बिटिया को तुम ,
दुर्गा-सी शक्ति ,सरस्वती की सोच।  
नव जीवन में अपने,पाए प्यार 
और  सम्मान हररोज। 
कर सके अपने फैसलें ,
ना  बने किसी पर बोझ ।