पापा के चश्मे से-
देखना चाहती हूँ
वह सब,
जो पापा ने देखा था ।
एक छोटे -से गांव से
शहर तक का सफर,
बड़ी सफलता से
अहसास किया था ।
मुझे क्यों --
धुंधला दिखता है ?
शायद -
उम्र का तकाजा नहीं ,
जो इस चश्मे को है।
देखना चाहती हूँ -
वह हंसी -मुस्कराहट ,
वह संजीदगी व सादगी,
वह निःस्वार्थ कामयाबी,
वह अल्हड़पन -नादानी
जिसने संवारा जीवन
धुंधला ही सही -
देखना चाहती हूँ -
वह दुनियादारी -रिश्ते
वे गुजरे पल
समाई जिसमें सारी यादें।
हाँ -चश्मे के इस
धुंधलके में -
कुछ -कुछ दिखने लगा है ,
हूबहू वही चेहरा
जो मेरे -
पापा का है ।
DEDICATED TO MY BELOVED FATHER ON HIS 7TH DEATH ANNIVERSARY.
1 टिप्पणी:
We all wish to live or get a glimpse of what our parents have experienced. May be, we will with age.
A very beautiful poem.
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